पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आया है उसका सारांश यही है कि 100 मीटर से ऊपर के पहाड़ ही अब अरावली पर्वत कहलाएंगे।

बेचारे 100 मीटर से नीचे के पहाड़ सूली पर चढ़ाए जाएंगे यानी खोदे जाएंगे। ये वो अभागे पहाड़ हैं जिनके भाग्य 99 पर आकर अटक गए। अब यही पहाड़, सुनील गावस्कर के साथ पारी की शुरुआत करने वाले चेतन चौहान की तरह बल्ला पटक कर पवेलियन में जा बैठेंगे और बोलेंगे…. एक से रह गए भाई वरना हम भी शतकवीर कहलाते। वाह! क्या खूब मजाक हो रहा है! लगता है अरावली कि खामोशी का कोई नाजायज फायदा उठा रहा है। सरकार और अदालत के अच्छे फैसलों का सदा स्वागत किया लेकिन यह बात हजम नहीं हुई। काश! ये बात कोई पीएम मोदी तक पहुंचा दे।

सुप्रीम कोर्ट को शायद यह मालूम नहीं कि ये सिर्फ ‘मगरे’ नहीं हैं, ये वो शिव स्वरूप पर्वतमालाएं हैं जो मेवाड़ कि आन, बान और शान की प्रतीक हैं। जिसकी ओट में प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप और उनके जैसे शूरवीरों ने मुगलों को लोहे के चने चबवाए थे। ये अरावली की वादियां गवाह हैं उस राजपूताना और मेवाड़ के वीरों की जिन्होंने इस मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

इन पर्वतों ने एक पिता की तरह न सिर्फ मेवाड़ बल्कि पूरे प्रदेश की रक्षा की है। रक्षा सिर्फ दुश्मनों से ही नहीं कि रक्षा कि है आंधी – तूफान और गर्म – सर्द हवाओं से, सहायता कि है बहते हुए पानी को अपनी गोद में आश्रय देकर प्यास बुझाने में, सहायता कि है भूजल स्तर बढ़ाकर खेतीहर किसानों के रोजगार सृजन में। आज ये अरावली नहीं होती तो यहां हरियाली नहीं, दूर दूर तक सिर्फ सूखी और बंजर जमीनें होती।

एक पिता तुल्य पहाड़ से हम और क्या उम्मीद कर सकते हैं। इन्होंने हमें वो सब कुछ दिया जो एक पिता अपने पुत्र को देता है। फिर क्यों ऐसे निर्दोष और मूक पिता की जान निकालने का फरमान जारी कर दिया गया जिसने गरीब और अमीर को आश्रय देने में कभी भेदभाव नहीं किया।

हम अपना इतिहास तो बिगाड़ ही चुके हैं, अब भूगोल बिगाड़ कर कौनसा परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले हैं। एक बात यहां लिखना चाहता हूं अगर अरावली नहीं रही तो याद रखना भविष्य में इस धरती पर न कभी पन्नाधाय पैदा होगी, न महाराणा प्रताप। जिस अरावली ने बप्पा रावल से लेकर महाराणा प्रताप तक को अपनी गोद में खिलाया – पिलाया और खेलाया हो आज उसी अरावली की जान पर बन आई है और हम चुप हैं। हमसे ज्यादा कृतघ्न और स्वार्थी इस धरा पर कौन होगा।

पिता के कलेजे को छलनी करने वाले कभी चैन की सांस नहीं ले पाते हैं। इस जन्म का ये पाप हमारे सात जन्मों के पुण्यों पर भारी पड़ेगा। ये मेरी ही नहीं हर उस इंसान के आत्मा की सिसकती आवाज है जो प्रकृति से प्रेम करता है। इस अरावली से प्रेम करता है।

जहां हरियाली है वहां रास्ता बना दोगे? जहां पहाड़ है वहां अट्टालिकाएं खड़ी कर दोगे? आखिर क्यों और किसके लिए? विकास की ये अंधी दौड़ विनाश के उस कगार पर जाकर ही खत्म होगी जहां सिर्फ अंधेरा है। चांदी के चंद सिक्कों के लिए क्या हम अपनी अरावली के मुकुट को सरे बाजार नीलाम होने देंगे?

ये दास्तानें सिर्फ मेवाड़ कि नहीं हर उस जगह की है जहां से ये पर्वत श्रृंखलाएं गुजर रही हैं। जब ये ही नहीं होगी तो सोचो भविष्य कैसा होगा । वन्य जीव, पशु पक्षी का सहारा कौन होगा ? जल ही जीवन है, हरियालो राजस्थान, पेड़ लगाओ – प्रकृति बचाओ जैसी सभी सूक्तियां झूठी साबित हो जाएगी।

अभी भी समय है हम अपने फैसलों पर पुनः विचार करें। सुबह का भुला शाम को घर लौट आए तो उसे भुला नहीं कहते। इन पर्वत मालाओं में मोती छिपे हैं और ये मोती तभी तक अपने हैं जब तक ये मालाएं हैं। जिस दिन ये मालाएं मुरझा गईं, जीवन के मोती भी बिखर जाएंगे। याद रखना खोदने से सिर्फ खाईयां बनती हैं, रास्ते नहीं।

बतौर उदाहरण राजसमंद में खनन स्वीकृति प्राप्त मार्बल की खदानों को देख लीजिए। जहां कभी बड़े – बड़े पहाड़ हुआ करते थे आज वहां गहरी और डूब मरने लायक खाईयां बन गई है।

आलेख : मधुप्रकाश लड्ढा, अध्यक्ष, ग्रीन बेल्ट सोसाइटी, राजसमंद (राज.)