राजसमंद। समय के साथ ही समानताओं और असमानताओं के तुलनात्मक अध्ययन का आंकलन भी काल और परिस्थितियों के अनुरूप स्वतः ही बदलता रहता है। सौ – डेढ़ सौ वर्ष पुरानी परिस्थितियों की वर्तमान से तुलना करना मुश्किल ही नहीं, असम्भव भी प्रतीत होता है। सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन प्रतिपल बदलता रहता है, ऐसे में तारतम्य स्थापित करना दूभर कार्य है।
हां, समग्र रूप से नहीं लेकिन महापुरुषों के क्रियाकलापों की समानता का अध्ययन स्थूल रूप से तो किया ही जा सकता है।
भूतकाल में लौटकर देखें तो बिलेह से नरेंद्रनाथ दत्त- विविदिशानन्द और अंत में स्वामी विवेकानन्द बनने तक का सफर अत्यंत कष्टदायक और मन को द्रवित कर देने वाला है।
स्वामी का, भारतभूमि से लेकर शिकागो धर्म सम्मेलन और अन्य देशों की यात्रा का वृतांत मर्म स्पर्शी है। पीएम मोदी का जीवन वृत भी कोई साधारण नहीं है। ऐसा लगता है जैसे नरेंद्र मोदी का जन्म ही स्वामी विवेकानद का पुनर्जन्म है। सिर्फ नाम की एकरूपता ही नही, इस देश और देश के गरीबों के प्रति इनके मन के भाव भी स्वामी विवेकानन्द की याद को जीवंत कर जाते हैं। स्वामीजी के सीने में हिन्दू धर्म की दयनीय स्थिति, कांटे की तरह चुभती थी। अपने ही लोग धर्म बदल कर हिन्दू धर्म को मिटाने में तुले थे।
स्वामी ने जिस तरह से अपना जीवन ‘परमहंस’ की तरह व्यतीत किया था, ठीक उसी नक्शे कदम पर वर्तमान के ‘नरेंद्र’ भी आगे बढ़ रहें है। आज जितनी भी योजनाएं आ रही है, वो सभी गरीबों को उत्थान की ओर ही अग्रसर करती प्रतीत होती है। गरीबों के प्रति यही दर्द, स्वामीजी के मन में भी था। पीएम मोदी के मन में राष्ट्र के उत्थान के प्रति वही दर्द है, जो स्वामीजी के अंतःकरण में था। दोनों ने परिव्राजक के रूप में एक लंबा समय व्यतीत किया, दोनों के रास्ते अलग अलग हो सकते हैं लेकिन वस्तुत पहुंचते एक ही शिखर पर है। फर्क बस इतना ही है कि स्वामीजी का सफर अध्यात्म के क्षेत्र से होकर गुजरता है, तो मोदीजी का अध्यात्म के साथ राजनीतिक क्षेत्र से। कमियां सभी में होती है तो अपवाद भी।
संसार भर में व्याप्त, माया की चमक ने अध्यात्म को पीछे छोड़ दिया। शायद इसीलिए आज के ‘नरेंद्र’ को अध्यात्म के साथ में, राजनीति का समावेश भी कराना पड़ा। लेकिन कह सकते हैं कि यह फर्क समय के परिवर्तन के अनुरूप ही आया है।
गरीबों की पीड़ा और राष्ट्र का दर्द ही था जो दोनों ही ‘नरेंद्र’ को वापस खींच लाया, वर्ना पहाड़ों और कंदराओं से मिथ्या जगत में वापस लौट आने का कोई ओर कारण तो नहीं। दशकों बाद भारत को वही सम्मान विदेशों में फिर से मिला है, जो स्वामीजी ने दिलाया था। उस काल में भी स्वामीजी की आलोचना विदेशियों से ज्यादा तो स्वदेशियों ने ही की थी। पहले भी रमाबाई और मजूमदार जैसे लोग स्वामी के विरोधी थे तो आज ममता और राहुल जैसे। आज भी दृश्य तो जस का तस ही है। विधर्मियों से ज्यादा तो ‘अपनो’ ने ही इस राष्ट्र का अहित किया है।
अंत में यही कहूंगा…..
असतो मा सदगमय ॥
तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥
मृत्योर्मामृतम् गमय ॥