समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है। प्रकृति, परिवेश, पदार्थ सब कुछ तो बदलता रहता है। फिर क्या इंसान और क्या इंसान को सोच !! कोई कैसे अछूता रह सकता है। एक समय था जब ‘दिल ढूंढता है फिर वोही, फुर्सत के रात दिन..।’ सुनना अच्छा लगता था। लेकिन आज कोरोना की कैद में बंद जिंदगी को, ऐसे नगमें भी बेमानी लगते हैं। है न !!
पिंजरे में कैद पंछी की तरह हम सभी फड़फड़ा रहे हैं। लेकिन कुछ समझ नहीं आता कि उड़ें कहां और कैसे उड़ें? जंजीरें दिखती नहीं, लेकिन हाथ बंधे हैं। पैरों में अदृश्य बेड़ियां हैं। उड़ान हौसले की भरना चाहते हैं, लेकिन ख़ौफ़ की दीवारें रास्ता रोके खड़ी हैं। रोजाना हो रही त्रासदियों को सुनते हैं तो मन दुबक जाता है। मृत्यु का नाम सुनते ही न जाने क्यों घिग्घी बंध जाती हैं। तभी तो हम इंसान है, वरना देवत्व की श्रेणी में न आ जाते !!
संकट की इस घड़ी में ‘मैं’ का विचार आते ही सोच की क्षमता सीमित हो जाती है। गर्भ में विचरण कर रही सेवा की भावना का आवेग ही समाप्त हो जाता है। चाहे जितनी त्याग, तपस्या कर लीजिए, स्वार्थ से मुक्त होना इंसान के लिए आसान नहीं। स्वार्थ की नींव पर जब वैभव की अट्टालिकाएं खड़ी होती हैं तो एक हवा का झोंका ही काफी है, विश्वास की इमारत को ध्वस्त करने के लिए। ब्लैक फंगस ने तो अब पांव पसारे हैं, मानवता की चादर में तो कब की फंगस लग चुकी है।
वर्तमान में इंसान की इस सोच और उसकी निरसता का एक बहुत बड़ा कारण एकल परिवार और एकाकी जीवन है। हम दुःखी इसीलिए हैं कि हमने पाश्चात्य संस्कृति की अवधारणा को यंत्रवत स्वीकार कर लिया है। खुली हवा में उड़ने वाली तरुणाई को एक कमरे की चारदीवारी ने सीमित कर लिया। ऐसे में मन में रोग और अवसाद की स्थिति पैदा होना लाजमी है।
तो क्यों न हम उसी बुनियाद को मजबूत करने की कोशिश करें जो इस संस्कृति और सभ्यता की पहचान है, इस राष्ट्र की धरोहर है। वसुधैवकुटुम्बकम् का मूल मंत्र इस राष्ट्र को ही नहीं, सकल विश्व को दिशा देने की शक्ति रखता है। माना कि तमस घना है, मगर उजाले की शुरुआत भी तो वहीं से होती है। अच्छे दिनों की शुरुआत, बुरे के बीतने पर ही तो होती है। तो आओ शुद्ध मन से मंथन करें, ताकि भविष्य की मुसीबतों से मिलकर कर दो-दो हाथ कर सकें।
आलेख: मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमन्द