इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस सबसे पुराना और एक मात्र राजनीतिक दल है जिसका परचम पूरे भारत में फैला हुआ था। समय के साथ दल पर परिवार विशेष का दबदबा बढ़ता गया। अनेक ऐसे बड़े कद के नेता हाशिये पर पहुंचते गए जिन्हें कांग्रेस की अगुवाई करनी चाहिए थी। अंतिम बार प्रणव मुखर्जी जैसे कद्दावर नेता को दरकिनार करते ही कांग्रेस की उल्टी गिनती शुरू हो गई। कांग्रेस ने ही कांग्रेस की दुर्गति की है, किसी अन्य ने नहीं।
आज स्थिति यह है कि कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर चिंतन शिविर की जरूरत महसूस हो रही है। वस्तुतः और सही मायने में देखें तो चिंतन शिविर का मूल उद्देश्य मृत पड़ी कांग्रेस में जान फूंकने का है। लेकिन प्राप्त रुझानों के आधार पर हम कह सकते हैं कि चिंतन में संगठन की मजबूती कम, सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य अधिक जान पड़ता है। कांग्रेस अपने संगठन को मजबूत करने के लिए जो भी निर्णय लेने जा रही हैं वो भाजपा से प्रेरित लगते हैं। इनके प्रस्तावित नियमों में गांधी परिवार को अपवाद स्वरूप विशेष छूट दी गई है। इससे साफ़ जाहिर होता है कि चिंतन शिविर अपने उद्देश्यों से भटक रहा है।
निष्पक्ष चिंतन से समस्या का समाधान निकलता है, चिंता से स्वार्थ पूर्ति का। मेवाड़ की वीर भूमि पर आयोजित चिंतन शिविर में निस्वार्थ मंथन होता हैं तो अमृत निकल सकता है, जो कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल के लिए जीवनदायी होगा। मजबूत लोकतंत्र के लिए अच्छे और दमदार विपक्ष का होना भी जरूरी है। भाजपा के ललाट पर भी स्वेद की बूंदे उभर सकती है। बशर्ते चिंतन शिविर में चिंतन हो, व्यक्ति विशेष की चिंता नहीं।
राष्ट्रवाद और अल्पसंख्यक जैसे मुद्दों पर कांग्रेस को गहन चिंतन की आवश्यकता है। यही वो दो मुद्दे हैं जिसने कांग्रेस को हीरो से जीरो की स्थिति में ला खड़ा किया है। राष्ट्रवाद पर कांग्रेस के बेतुके बोलों ने कांग्रेस को असहज और असहनीय बना दिया। किसी भी दल के लिए राष्ट्र से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। बस इसी को समझने और मनन करने की आवश्यकता है। अपेक्षा है कि इस चिंतन शिविर से ऐसा ही कुछ निकलेगा जो व्यक्ति नहीं, इस राष्ट्र के लिए सर्व हितकारी होगा।